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देख रहा हूँ



देख रहा हूँ

अब थोड़े थोड़े
भीड़ काम हो जायेगी
लकड़ी जलकर ख़ाक
चमड़ी रखा हो जायेगी
अस्थि बचेगी
मेरी वो आस जगाये
मेरा अपना होगा कोई
उसे जो गंगा में बहाये
देख रहा हूँ
खुद को ही अब मै
कुछ करना चाहता हूँ
छटपटाना चाहता हूँ
कुछ कर नही पा रहा हूँ
मूक मै तब भी था
और मौन मै अब भी हूँ
बस सब जो था मेरा
मुझ से सब धीरे धीरे गया
बस एक चीज ना गयी
जो साथ मेरे चली आयी
वो छटपटाहट तब भी थी
वो छटपटाहट अब भी है
अब थोड़े थोड़े
भीड़ काम हो जायेगी
लकड़ी जलकर ख़ाक
चमड़ी रखा हो जायेगी
अस्थि बचेगी
मेरी वो आस जगाये
मेरा अपना होगा कोई
उसे जो गंगा में बहाये

एक उत्तराखंडी

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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