लो चली ,आ रही है हवा
लो चली
आ रही है हवा
आज फिर मेरे गाँव से
याद आ रही ऐसे वो
नदी बन बह रही है
मेरे आँख से
लो चली
आ रही है हवा
उड़ रही है
ये धूल जैसे
चुभ रही है मेरे साँस
मेरे हर वो खाव्ब में
उस एक भूल की
कीमत चुका रहूँ
कल भी
और आज में
लो चली
आ रही है हवा
कभी वो खाव्ब थे
थे लगे वो मीठे मीठे से
अब सब वो ना सच है
ना जाने वो झूठे कैसे
और वो सारे खारे से हो गये
ज़िंदगी बादल बनी
धुप से सफेद साफ़
और धुंधले से हो गये
लो चली
आ रही है हवा
अब भी अटका हुआ हूँ
साँस के मै उस तार से
सिर्फ तारीखें बदलती रही
मौसम के इस मार से
वो खड़ा यंहा पर उदास है
झुरमुट अब चढ़ी हुई
रोशनी के सांवले अंधेरे में
दुबका कर डूबा सूरज
फिर वो आज है
लो चली
आ रही है हवा
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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