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जब कभी भी


जब कभी भी

जब कभी भी मैंने पूछा अपने से ही
तुम ने ही बस मुझको तब आवाज दी थी
बजते रहे घुंघरू पैमाने ने वो चाह की थी
दो घूंट चढ़ते उतरते बस तुम्हरी याद रही

मैने तो दफना दिया था अपने को यंही
थोड़ी मिटटी रह गयी गीली मुझ में कंही
आ के तूने फिर उसमे फूल खिला डाला
जिंदा हूँ मै मुझ में ऐ महसूस करा डाला

थोड़ा झुंझलाया तुझ पर थोड़ी तो लड़खड़ाई
शरमा शरमा के बेशर्मी भी अब नजर आयी
हाथ और आँखों ने एक दूसरे से इशारे किये
जाम पे जाम और महफ़िल ने वाह वाह किये

अपना ना रहा ना रहा अब तो बेगाना भी
कैसे अग्न जली है खुद को ही जला डाला
रखा बन गया हूँ धुँआ तन मन कर डाला
हाये मधुशाला तूने क्या ये हसर कर डाला

जब कभी भी मैंने पूछा अपने से ही
तुम ने ही बस मुझको तब आवाज दी थी
बजते रहे घुंघरू पैमाने ने वो चाह की थी
दो घूंट चढ़ते उतरते बस तुम्हरी याद रही

एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http://balkrishna-dhyani.blogspot.in/search/
में पूर्व प्रकाशित -सर्वाधिकार सुरक्षि

बालकृष्ण डी ध्यानी
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