जो खुद को
जो खुद को समझा ही नही
वो दूसरों को क्या समझायेगा
तोड़ा दिल जिसने ने अपनों का ही
दर्द दूसरों का क्या वो झेल पायेगा
हरी-भरी वसुंधरा जिसे ना रोक पायी
उजाड़ पथ ओर चले पद को तू कैसे रोकेगा
अनसुना कर दिया जिसने खुद के अस्तित्व को
तेरे मात्र बोल देने से क्या वो वापस लौटेगा
कोशिश मेरी मै अपनों से यूँ ही लगा रहूंगा
वो ना बदल रहा तो मैं क्यों बदलूंगा
वो भी पहाड़ी है तो मै भी पहाड़ी हूँ
देखना पहले अब कौन यंहा किससे जीतेगा
हार मैं मान लूंगा अपने से जब तू अपनी धरा को लौटेगा
सीमा ना होगी मेरे हारने की जीत तेरे कदमों को शत-शत चूमेगी
पग तेरे भटके फिर बढे पड़े यंहा गीत खुशियों फिर एक बार झूमेंगे
मौज मस्ती होगा वो मौसम पर्वतराज हम संग फिर तब डोलेगा
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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