मूर्ति अगर बोल देती
मूर्ति अगर बोल देती
खुद अपना वो भेद खोल देती
आस्था को अपने टटोलती
किस राह पे आगे बढ़ना है बोल देती
मूर्ति अगर बोल देती
तेल चढ़ना या दूध
किसकी लगी आज उस को भूख
उस समय उस प्रसाद को बनाने
अपने लिये वो बोल देती
मूर्ति अगर बोल देती
भीड़ नहीं होती इतनी
ना ही इतना इन्तजार की लाइन होती
सारा समय मिलने का उस से
पहले से ही तब निश्चित होता
मूर्ति अगर बोल देती
ना गरीबी होती ना अमीरी होती
ना कोई ख़ास होता ना आम होता
इस पत्थर के दरबार में ये पुजारी
ना फिर किसी का कोई ऐतराम होता
मूर्ति अगर बोल देती
ना राम होता ना रहीम होता
बस चहुँ और तब बस इंसान होता
तब भूके को रोटी मिलती
नंगे को तन ढंकने को कपड़ा मिलता
काश ! मूर्ति अगर बोल देती
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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