एक रंज है
एक रंज है सीने में कहीं
रोज दब रही है वो नस सीने में कहीं
ताश पत्ते बिखरे मिलेंगे
अपने में वो सुलझे थोड़े उलझे मिलेंगें
गुठली के दाम अब आम ख़ास
अफ़सोस है वहां अब मेरा क्या काम
देख कर भी मै अनदेखा क्यों करूँ
एक और रंज इस सीने के अंदर जड़ों
उड़ रही है वो देखो उदासी मेरी
गंभीरता से थोड़ी दोस्ती थोड़ी नारजगी मेरी
शोक और मातम ने मुझे ऐसा घेरा
उस घेरे ने बाहर बस द्वेष ही फेंका
छोटा सा बीज वो रंज का
ऐसे पनपा ऐसे पला... एक रंज है सीने में कहीं
एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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