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निरन्तर वो बहे वेग


निरन्तर वो बहे वेग
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निरन्तर वो बहे वेग
लगातार खेल खेले भेद
सतत हो रही मर्याद के मूल्यों में छेद
अनुगामी हाथों से फिसलती जा रही रेत
अविच्छिन्न कर रही रोज विचारों की सेंध
निष्ठुर हो रहा दिन प्रतिदिन वो मन का प्रेत
कठोर होती जा रही अब माह की जेठ
दूर जा रही दूर अपनों से भेंट
सदैव की भाँती
सदा की वो कांती
सर्वदा में अब घिरा रही वो उसकी भ्रान्ति
निरन्तर बस अब निरन्तर ….. वो बहे वेग
कोई नही देख रहा
आँख है क्यों ?अँधा बना
माया देश में लगता है
वो भी जमा
बाबुल के पेड़ पर
कांटा क्यों खिला ?
कमल यंहा भी मिला कीचड़ में पड़ा
मूक है वो बधिर अपंग वो
अकल मन के शरीर से
विस्तार कर रहा झुठ अपने जमीर का
धूल उड़ा रहा वो आदर्शों की दीवार पे
सिद्धांतों की चिथड़े चिथड़े कर रहा
अब सरे आम वो बीच बजार में
निरन्तर बस अब निरन्तर ….. वो बहे वेग
बैठे हैं सब,अकेले सब व्याकुल
अपने सोच में घिसे पिटे हैं बैठे सब
बंद कर सब अपने मन के द्वार
कर रहें बस आज वो किसका इन्तजार
कौन आयेगा कौन बचायेगा
हनन हो रहे मूल्यों को
कौन फिर पुराना नया ताज पहनायेगा
लगता नहीं कोई.....जिस तरह गिरा रहा वो
निरन्तर बस अब निरन्तर ….. वो बहे वेग

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बालकृष्ण डी. ध्यानी

बालकृष्ण डी ध्यानी
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