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काफल लगे हैं पकने


काफल लगे हैं पकने

काफल लगे हैं पकने
बुरांस लगे हैं वो खिलने
धुप लगी जब पिघलने
पहाड़ लगे अब सजने

नित नया रूप धर लेता
वो सारे दुःख हर लेता
जब लीची लगे ललचाने
फिर पहाड़ लगे बुलाने

काँटों काँटों पे बहार आयी
फूलों ने ली फिर अंगड़ाई
उजाड़ आज कैसा खिला
कोई बिछड़ा हो उससे मिला

गर्मी में चहल पहल होती
वो साल भर का इंतजार होता
आमदनी कुछ मेरी होती
चेहरा पे सबका निखार होता

चार महीनों की वो रौनका
झट तुरंत समाप्त हो जाती
फिरा ना कोई संगी साथी
मै ही दूल्हा मै ही बाराती

काफल लगे हैं पकने। .....

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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