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वो खारे मोती


वो खारे मोती

आँखें नम है ,बस यही गम है
आती जाती साँसें ,बस थम थम है
आँखें नम है

सुबहा की पहली बूँद पड़ी ज़मीं पर
शबनम ओस के वो खारे मोती झिलमिल है
रुसवा है कोई हर रोज आज किसी से
वहशत का बना अब अपना ही घर है

पीत का छाया यंहा अब इतना असर है
शाद भी आज गुमशुदा हो फिर रहा बेफ़िक्र है
उफ़ताद छिड़ा है अब हर ओर हिज्र का
दारू ही अब सब पर तक़मील हुआ है

बुँदे छलकी कदम लड़खड़ाये
गिरते पड़ते हम मैख़ाने से घर को आये
अपने को संभले या संभले उनको
अब यूँ ही उम्र गुजरी अब ये ही पसर है

आँखें नम है ,बस यही गम है
आती जाती साँसें ,बस थम थम है
आँखें नम है

एक उत्तराखंडी
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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