अकेला मेरा पहाड़
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जब से अब तक
जैसा था वैसा मेरा पहाड़
ना मिली राजधानी
ना चला यंहा कोई व्यापार
प्रगति के नाम पर
हो रहा पहाड़ का बंटाधार
पालयन की मार बस
झेल रहा मेरा पहाड़
मैदानी पहाड़ी इलाके
तराजू बस एक ओर झुका
दुसरा बाजू नत होकर
अपनों से ही वो लूटा
खाली हो रहा है वो
अंदर ही अंदर टूट रहा है
वीरान होते गांवों में
खंडहर बन बोल रहा है
एक एक चीज खो रही है
संस्कृति दमन छोड़ रही है
नारी का ही एक सहारा है
नर यहां बस बेसहारा है
बच्चों की यंहा फौज खड़ी
बूढ़ों की बस यहां उम्र बढ़ी
बूढी अब भी काम पर लगी
पहाड़ की ये वेदना बड़ी
सुरंगों से हुआ छेद
सड़कों का यहां जाल बिछा
खेती के बस बारा बजे
नदियों का सारा रेत गया
जंगलों का देखो शेर गया
फल फूलों का वो बाग़ गया
बांधों की ये बस नगरी बनी
शहीदों का गैरसैण गया
देवों की ये देवभूमि
पड़ी अब बिखरी और सूनी
कोई तो करे शंखनाद
उत्तरखंड की कोई सुने आज
सरकारें बस आयेगी जायेगी
घोषण के ये उपहार बांटेगेी
पांच साल का बिजनेस सबका
अगली बार कोई और ठेका लेगा
मेरा पहाड़ फिर रह गया वैसा
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बालकृष्ण डी. ध्यानी
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