जब कभी यूँ ही अकेल में
जब कभी यूँ ही अकेल में
सोचों खुद से जब खुद में ही मै
देखों अपने को कपड़ों की तरह
खुद को बदलते हुये खुद में ही मै
अपनों में रहूँ या मै गैरों में
खुद से ही अब खुद गैर मै खुद में लगने लगा हूँ
बिकती माटी, अब बिकती है रोटी
सांसें बिकी मेरी अब मै खुद में ही बिकने लगा हूँ
लगा है बीच बजार मेरा
खड़ा हूँ मै अकेले पर ना मिला कोई खरीदार मेरा
जब कभी यूँ ही अकेल में
सोचों खुद से जब खुद में ही मै
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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