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मैंने देखा है



मैंने देखा है

मैंने देखा है
शहर,गाँव को बहुत करीब से

ये मौका मिलता है
बस हर उस एक बदनसीब को

जिसका चूल्हा नहीं जलता
दो वक्त उस वक्त के समीप से

तब अपने से चल पड़ते हैं ये कदम
ना जाने किधर और किस फ़िक्र से

भूख लगती है तब रोटियां भी खूब नचाती हैं
आँखों को मूंदकर तब वो झूठे सपने दिखाती हैं

शहर आया हूँ अब वो मेरे अपने भी मिले
कभी गले लगते थे अब मीलों के फ़ासले पड़े दिखे

कहना है बस झूठ फरेब की इस नगरी से
देख तुझे देखकर मेरे गाँव का कहीं दिल ना दुःख जाये

मैंने देखा है ...................

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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