शायद ही तुम को
अकेले सन्नाटे को चीरना वो मेरा मकसद नहीं था
अपनों से मिलाना ही उस राह का शायद मकसद होगा
रोज नया आयाम लेती है जिंदगी यूँ ही फिजूल नहीं
कारण होगा कुछ ना कुछ वो फिजूल यूँ रोज बदलती नहीं
हर एक वो लिख देता जो उसे वो लिखाना चाहता है
एक एक पत्ता पत्ता अब भी उसके इशारे का मोहताज है
धरती है वो वो मेरा आकश कहीं अब मिलते देखा नहीं
पागल हैं वो जो अपना घर जला दूसरों का बसा देते हैं
सत्ता की लालच ने धरती अब हर जगह पर वो बाँटी है
बता दो तुम एक जगह भी जंहा लूटा नहीं इस ख़ाकी ने है
बस में लिख के यंहा से अब अकेला कहीं मैं चला जाऊंगा
लगता है शायद ही तुम को कभी मैं अकेले यूँ ही याद आऊंगा
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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