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मैं अपने में ही कहीं ग़ुम हूँ



मैं अपने में ही कहीं ग़ुम हूँ

अपना ना कोई यंहा
सब कुछ है यंहा पर पराया
कोने कोने में बिखरा हुआ
मैंने जब उनमे खुद को है पाया

टूटे सपने टूटे वादे
खुद से उलझे पड़े हुये
रिश्तों की उलझन में उलझे
कोने खुद से अनसुलझे ही लगे हुये हैं

एक ही रास्ता है वो रोज का
एक ही वो आने जाने वाला मंजर है
खिंजा खिंजा सा रहता है ये दिल
खुद से पाला जो मैंने वो समंदर है

रेखायें उभरती है समय समय पर
उन उजालों के अंधेरों में से
दिन डुबता है अब मेरा उन उजालों में
जिस में ना कोई बची अब हलचल है

आक्रोश ही आक्रोश पनप रहा है
चिल्लाता हूँ अब मैं खुद के अंदर हूँ
ना जाने क्या दबा रहा हूँ मैं
क्या मैंने देखा ऐसा जो बाहर है

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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