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वक्त के साथ सब कुछ मैंने बदलते देखा


वक्त के साथ सब कुछ मैंने बदलते देखा

वक्त के साथ सब कुछ मैंने बदलते देखा
किसी को निखरते ,किसी को उजड़ते देखा

ना मिला अपना ना कोई पराया भी मुझे
दिल था बस मेरा वो अकेला ही धड़कता रहा

आग जलती भी रही और वो बुझती भी रही मुझ में
हर बार राख हो कर आबाद मुझको ही होना पड़ा

मेरे अपने मुझ से सदा के लिये अब पराये हुये
उन परायों को अपना समझकर मैं बस बोलता रहा

ऐसा वक्त मैं बस अब यंहा पर देखना चाहता हूँ
इन पहाड़ों को अपनों साथ हँसता देखना चाहता हूँ

वक्त के साथ सब कुछ मैंने बदलते देखा
किसी को निखरते ,किसी को उजड़ते देखा

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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