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बेफिक्री सी है ये जिंदगी


बेफिक्री सी है ये जिंदगी

बेफिक्री सी है ये जिंदगी
सच में पता नहीं मुझे
.. क्या अपना है क्या है पराया
समझ नहीं आता मुझे
किस हिस्से में क्या हमने पाया
बाँट कर रखा है इसे
यंहा पर कई सदियों से
बचपन जवानी और बुढ़ापे की कड़ियों से
अब तू ही बता दे मुझे समझा दे
क्या हिस्सा है तेरा क्या है मेरा
एक कमरा है उसकी चार दिवारी
एक खिड़की एक रोशनदान
एक लाईट है वो आती जाती सी
कुछ साये वहां घूमते मिलेंगे
खुद से वो बुदबुदाते मिलेंगे
समय चलता चला जायेगा
बस उसी चार दिवारी में
बेफिक्री सी है ये जिंदगी
सच में पता नहीं मुझे
.. क्या अपना है क्या है पराया

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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