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ना मधु मिला ना मधुबन खिला


ना मधु मिला ना मधुबन खिला

ना मधु मिला ना मधुबन खिला
सब मधुआ आकर चुरा ले गया
ना तन से मिला ना वो मन से मिला
इस जीवन को वो ऐसे छला कर गया
ना मधु मिला ना मधुबन खिला ............

जात-पात की कुछ ऐसी अनोखी पेटी बंधी
वो तंबूरा रह रह कर कर बड़ा शोर कर गया
धर्म के अर्थ से विमूढ़ हो कर ये अंग घूमे
अंग प्रदर्शन से वो अब खड़ा विमुख हो गया
ना मधु मिला ना मधुबन खिला ............

समझता है सब कुछ पर वो ना समझ बना
जानता नहीं वो अपना ही अब दुश्मन बना
खड़ा है वो वंहा अब उस उथले समंदर के अंदर
सोचता हो महफूज हो वो उस किनारे पर खड़ा
ना मधु मिला ना मधुबन खिला ............

जहर निचोड़ कर सारा आज जिसने भी पीया
उसने ही सही मायने में इस जीवन को जिया
जीते है सब यंहा पर अपने और अपनों के लिये
जीना वो जीना है जिसने ये जीवन गैरों को दिया
ना मधु मिला ना मधुबन खिला ............

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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