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मथि मथि चलूं ह्युं पड़णु



मथि मथि चलूं ह्युं पड़णु

हुं म ...... अ .....
मथि मथि चलूं ह्युं पड़णु
टुक टुक जियू मेरु किलै करणु
मिठी मिठी पीड़ा तब उठनि
ये आँखि मेर तू कैथे हैरनि
मथि मथि चलूं ह्युं पड़णु ......

देके दे रोज मिथे ऐ सुपन्या
भिगे दे मिथे तू रोज अब वैमा
भीजि ज्यूँ मि सदनि वै खोल मा
रोलों सड़कों का वै घोल मा
मथि मथि चलूं ह्युं पड़णु ......

अपरा अपरि मा मि लग्दी रयुं
ब्याल भौल परबत बल ये सोच्दैरों
ये डांडियों कण्ठ्यों जब ह्यूं जम जौल
ये बारी मि नक्की पहाङ परती औुल
मथि मथि चलूं ह्युं पड़णु ......

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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