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यूँ ही राहों पे चलते चलते


यूँ ही राहों पे चलते चलते

यूँ ही राहों पे चलते चलते
यूँ ही किस्सा अब हजार हो गया
(मरते हम कभी ) ... २ बस एक पर
पर ये नजरें अब हजारों पे मरने लगी
यूँ ही राहों पे चलते चलते ...

बड़ा सकून आता था
इस दिल को कभी एक ही भाता था
कभी कसमें खाई थी इसने लाख कभी वादे किये थे लाख
जिस पे सकून आता था अब इस दिल को वो भाता नहीं
यूँ ही राहों पे चलते चलते ...

मेरी बता बताओं तुम्हे
या तुम्हरा ही जिक्र अब सुनाऊँ तुम्हे
इन किस्सों में है तुम्हरा नाम भी जोड़ा
ये अगर झूठ है तो आके झुठलाओ मुझे
यूँ ही राहों पे चलते चलते ...

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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में पूर्व प्रकाशित -सर्वाधिकार
बालकृष्ण डी ध्यानी
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1 टिप्पणियाँ

  1. राहों में यूँ ही हज़ार मिल जाते हैं...लेकिन अपना मिलना आसान नहीं होता। .
    अच्छी रचना

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