मेरा घर , मेरा पहाड़
टूट रहा है वो ,छूट रहा है वो
कुछ ईंटें उखड़ी हुई ,कुछ दीवारें चटकी हुई
बिखरा गये सब सामान ,सपने थे जो सब बईमान
सावन के बस भीगे दिन हैं ,खत में भीगी वो लिपटी रात
पतझड़ है बिखरा हुआ ,टपकते पानी की बूंदों की तरह
कांपती हाथों ने अनसुनी , सावन के कानों से लौटी वो आवाज
एक अकेला था मैं , एक अकेली वो राह
चल पड़े थे वो कदम , लूट रहा था बस वो मजबूर का जंहा
चौबीस घंटो से लगातार, आज क्यों हो रही है बरसाता
क्या है इसका जवाब , आज सवाल खड़ा खुद बेनकाब
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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