तब मेरी कविता रोती है
जब अक्षर टूटे मेरे
बादलों के फटने से
बहा ले गया उसे कोई
अपनों के होने से
तब वो सिसकती है
अपने को अकेला देख
अकेले वो कोने में बैठ
तब मेरी कविता रोती है
हाथ बढ़ेंगे कुछ दिन
फिर वो एकदम थम जायेंगे
मजाक करने फिर हम से
हमारे तंत्र के पैंसे आयेंगे
उसे देख कर वो
फिर से सिकोड़ जाती है
क्या करें और कैसे जियें हम
तब मेरी कविता रोती है
देख वो नजारा
आँखें अब भी विचलित है
क्या था ये क्या हो गया
ना अपने पे भरोसा होता है
तिलमिलाती है खूब
खूब वो जोर से चिल्लाती है
ऊपर देख वो खुद से सवाल कर जाती है
तब मेरी कविता रोती है
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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