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ऐसे तेरी कमी सी खलती रही


ऐसे तेरी कमी सी खलती रही

ऐसे तेरी कमी सी खलती रही
जैसे ये हवा सी चलती रही
यादों और लम्हों में तू रहती है
ऐसे ही रोज मेरी शाम ढलती है

अभी वो सूरज नहीं डूबा है
अभी भी जरा सी वो शाम बाकी है
सोचों, मैं खुद से ही अब लौट जाऊंगा
ऐसा क्यों ना मेरे साथ होता है

रोज क्यों में नाकाम सा हो जाता हूँ
अपने आप से ही बदनाम हो जाता हूँ
बहाना ढूंढ़ता हूँ मैं इस जमाने से
अपना नाम ही मैं अपने से भूल जाता हूँ

चांद तारों की रात अब जगने लगी
वो भी अब मुझसे देखो कहने लगी
सो जाओ रात हो गयी है काफी
निंदिया मेरी अब क्यों भटकने लगी

ऐसे तेरी कमी सी खलती रही

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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