अपना हूँ मैं
कच्चे थे पर कितने सच्चे थे
वो मिटटी के घरोंदे कितने अच्छे थे
सदा अपना मिल जाता था वंहा
क्या हसीन था वो छूटा मेरा जँहा
खिलती रहती थी वंहा हंसी मेरी
बिखरी मिलती थी मुझे खुशी मेरी
वो बचपन मुझे बहुत याद आता है
उसके और करीब वो मुझे ले जाता है
सपनों में ही अब वो रोज मिलता है
भूल ना जाना अपना हूँ मैं ये कहता है
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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