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मैं पहाड़ी परदेसी


मैं पहाड़ी परदेसी

पहाड़ों में ही
अब वो दिल बसता है
वो गुल पहाड़ का
अब उस से दूर ही खिलता है
वो मौका उसे अब कम ही मिलता है
माँ पिताजी, गुरूजी के चरणों में
वो शीश अब कम ही झुकता है
मैं पहाड़ी परदेसी

कैसे टूट जाते हैं
वो रिश्ते जो बिखर जाते हैं
दूर जाकर नजर आते हैं
पास रहकर वो गुम हो जाते  हैं
यहाँ तो जरा सा भी दिल टूटे जाये तो
उस का पूरा फ़साना बन जाता है
कब से ये दिल टूटा है
कब से उस से वो छूटा रिश्ता  है
मैं पहाड़ी परदेसी

अजीब  शहर का  ये दस्तूर है
हर एक अपने में ही यंहा पर मशगूल है
आदत बन गयी है अब हम को  भी
खुद ही खुद को अब जख्म देने की
दिन रात उसे अपने से बस कुरेदने की
जी भर के अब खूब अकेले रोने की
रोते रोते पहाड़ तुझ से लिपट जाने की
अपने आप से ही खुद घिर जाने की
मैं पहाड़ी परदेसी

तू अब भी बहुत याद आता  है
दिल मेर अब भी धक सा हो जाता है
अब  भी मेरे प्रश्न अपने से ही उत्तर ढूंढते हैं
अपनी मजबूरियों से रोज जाकर वो पूछते हैं
उस चार रस्ते पर हर वक्त अपने को खड़ा पाता हूँ
किस और जाऊं मैं अपना वो रास्ता भूल जाता हूँ
खुद ब खुद फिर मैं अपने में ही लौट आता हूँ
अपनी सोच समझ को मैं ऐसे ही रोज मार देता हूँ
मैं पहाड़ी परदेसी

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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