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अकेलापन पालती है ये दुनिया


अकेलापन पालती है ये दुनिया

अकेलापन पालती है ये दुनिया
संग अपने हर पल खेलती है ये दुनिया
दूर होना अपनों से
बोझल हो जाना देखे उन सपनो से
खलती रहती है वो उम्र भर
उस निर्जनता की सीमा तक
अकेलापन अकेलापन

मायूस देखता है उस अपने को
एकाकीपन के बहते उस झरने को
आवाज तो बहुत करता है वो
तनहाई से टूटा वो हिस्सा है जो
पृथकता की वो आंखें चढ़कर
घूरता है अकेला उस आँगन को
अकेलापन अकेलापन

वीराने की कोई छतरी होगी इतनी बड़ी
ढँक ना पाती होगी वो उस आँचल को
अखंडता की वो कड़ी जो छूट जाती होगी
वियोग के मात्र आचरण से
अलगाव का रास्ता पड़ जाता है उससे वास्ता
जिन्दा हूँ अब ये होश भी नहीं रखता
अकेलापन अकेलापन

भावनाओं के पिंजर को अब सलीब पर चढाऊँ
ऐसी पूंजी खाजाने को अब किस पर लुटाऊँ
यादों के खंडहर से दूर कैसे जाऊं
भटकती अपनी आत्मा को शांत कैसे पाऊं
स्वार्थी लोक में मैं अपना किसे ना बनाऊं
बेगानों में अपना कहाँ से ढूंढ़ लाऊं
अकेलापन अकेलापन

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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