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अब मै कम ही बोलता हूँ


अब मै कम ही बोलता हूँ

अब मै कम ही बोलता हूँ
सच कम और झूठ को
ज्याद टटोलता हूँ
कभी पत्थर पर बैठकर
कभी कमरे में बैठकर
अकेले अकेले में
अब मैं क्या खोजता हूँ
अब मै कम ही बोलता हूँ

कभी बहती नदी के
शोर में गुम
कभी भीड़ भाड़ भरे शहर के
शोर में धुंध
मदहोश हो कर मैं घूमता हूँ
पर फिर भी मैं सोचता हूँ
अब मै कम ही बोलता हूँ

पहाड़ की बैचैनी
ऊँची इमारतों का वो खालीपन
अब एक सा लगता है
अब मुझको वो ही सब जंचता है
साफ़ सुथरी हवा
मटमैले उड़ती वो धूल
मेरे पास ही पलती है
अब मै कम ही बोलता हूँ

अब बोलने वाले ज्याद हैं
और सुनने वाले बहुत कम
अब सब की सुनता हूँ
अपना मुंह बंद ही रखता हूँ
क्यों की बच्चे बड़े
और मैं बूढ़ा हो गया हूँ
अकेला था पहले मैं
अब मैं बहुत अकेला हो गया हूँ
अब मै कम ही बोलता हूँ

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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