रोज अपने दामन पर लगे दाग मिटाता हूँ
रोज अपने दामन पर लगे दाग मिटाता हूँ
सुबह होते ही मैं उस काम पर लग जाता हूँ
खाव्हिशें सब खत्म सी हो गई है अब मेरी
जब अब अपनी दबी खाव्हिशों संग मैं सो जाता हूँ
अच्छे से अच्छा बनकर मैंने भी देख लिया
बुरे वक्त में जब मैं खुद को अब अकेले पाता हूँ
जिसकी जरूरत थी जितनी उसने उतना बाँट लिया
मेरे हीस्से में जो आया वो खाली बर्तन दिखाता हूँ
एक अजीब सी दौड़ है मेरी ऐ बची खुची जिंदगी
दौड़ शुरू हुई जँह उस मोड़ में खुद को बैठा पाता हूँ
सोचा था अपने अवकाश में बैठूंगा आराम से अब
अब हर पल कुछ ना कुछ नया सवाल उभर आता है
लोगों के समाने अब मुस्कुरना अधिक पड़ता है मुझे
कहीं छलक ना जाये वो दर्द उसे अब छुपना पड़ता है
रोज अपने दामन पर लगे दाग मिटाता हूँ
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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