ख्वाबों को पाने को
ख्वाबों को पाने को
झट से मचल जाता हूँ मैA
टूटते है वो जब आँखों से
क्या भला पाता हूँ मैं
शोर तो कुछ होता नहीं है
और तो कोई रोता नहीं है
बस उस पल अकेले अकेले
खुद से सपक जाता हूँ मैं
जाने क्या बेकरारी
सुनहरी चादर ओढ़ी वो दुल्हन हमारी है
अंखिया तकती रहती है उसे
और वो ख़्वाब बदल जाता है
रोशनी का पहरा है
वो गुजरा पल धुंधला सवेरा है
उन ख्वाबों की तलाश में
रोज यूँ ही भटक जाता हूँ मै
हात कुछ आता नहीं है
पास कुछ रहता नहीं है
आते ही समीप अंधेर फिर से
नई आस संग बंध जाता हूँ मैं
ख्वाबों को पाने को ..........
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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