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सब लिख रहे थे


सब लिख रहे थे 


सब लिख रहे थे 
तो मैं भी बैठ गया लिखने 
लिखना क्या था मुझे 
अब तक समझ नहीं पाया 
रोज बह जाता हूँ 
जंहा भावनाओं का वेग होता है 
बरसों से उस मेज पर पड़े 
उस कोरे कागज को देख 
मेरा अंतर्मन रह रहकर 
मुझे रोज यूँ ही उकसाता रहा 
और मै उस पर लिख जाता रहा 
एक लकीर खींची मैंने 
आज उस पगडंडी से ले उस सड़क तक 
मिटटी के घर से ले उस कंक्रीट के घर तक 
उस बचपन से लेकर उस बुढ़पे तक 
हर मोड़ के हर एक छोर तक 
रस्तों ने रिश्तों को मिलाया 
हर शाम उन्होंने ही 
अपने घर तक मुझे पहुंचाया 
उस रास्ते पर चलकर 
प्रेम भी मिला 
तड़प भी तन्हाई भी मिली 
ख़ुशी के साथ वो 
आंसूं की दिल रुबाई भी
फिर वो एक नई कहानी लाई 
उसी एक कोने बैठ कर 
उसने अकेले मुझे खूब रुलाया
कभी उसी कोने में बिठाकर 
उसने मुझे कई घंटों समझाया 
सब ने यही एक बात कही मुझ से 
जिंदगी है बस चलती चली है 
शिकवे शिकयतों में वो उलझी है वो 
पर लड़ी है और चलती चली है
मैं भी चलने लगा एक मोड़ आया ऐसा 
जंहा मेरे पहाड़ों से निकली वो नदी भी मिली 
जो सागर की और हंस के चली 
मेरे बचपन की यादों को संजोये 
आज विशालत में अपना अस्त्तिव देने चली 
और ऐसी भी नदी मिली जो नाले में खो गई 
अपनी अस्तित्व से लड़ते लड़ते लुप्त हो गई
नदी के ऊपरी और बढ़ते 
मेरे कदम पहाड़ पर चढ़े वंहा 
पहाड़ अपनी बेचारी लिए बिचारे मिले
शहरों में खाक छान रहे गाँव के साये मिले 
पलायन के दर्द वो भी ना छुपा सका
ना ही वो रोती आंखों से 
अपना दर्द बता सका 
रह रहकर वो वो सारे मिले 
अपनों से वो अपने 
आज वँहा मुझ से बेगाने से मिले 
सब लिख रहे थे ...... 

बालकृष्ण डी ध्यानी 
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
में पूर्व प्रकाशित -सर्वाधिकार सुरक्षित

बालकृष्ण डी ध्यानी
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