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अब भी जीने के लिए अपना पूरा जोर लगाता हूँ



अब भी जीने के लिए अपना पूरा जोर लगाता हूँ 

हम ने छोड़ दी अब तन्हाइयों से बातें करना  
तुम आते हो तो  मेरा ठहरा वक्त गुजर जाता है  

घर कि चार दीवारी को घंटों हम घुरा करते हैं 
अकेले हैं हम आज वो कैसे समझ जाता है 

अपने होने का एहसास उनके ना होने से हुआ 
ये तजुर्बा हमे अपना सब कुछ खोने से हुआ 

जब तक माँ थी मेरी तब तक घर घर था मेरा 
मुसाफिरखाना है अब ऐ जागता है सो जाता है 

पहाड़ों में घर था मेरा अब वंहा कोई नहीं रहता 
जहां बाप दादाओं ने अपनी मेहनत लगाई थी 

अब भी देखती रहती है एक नजर एकटक मुझे 
अब भी मैं  उस नजर से नजरें अपनी चुराता हूँ 

फ़क़त दो सांस रह गई इस मांस के ढांचे में अब 
अब भी जीने के लिए अपना पूरा जोर लगाता हूँ 

बालकृष्ण डी ध्यानी 
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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बालकृष्ण डी ध्यानी
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