लाने बस चार आने मुझे
अभी बहुत दूर तक जाना मुझे
लाने बस चार आने मुझे
जगमग दिप खूब जलाये मैंने
जब अंधेरों ने खूब ठगाये मुझे
भावनाओं ने रचा सारा खेल था
अच्छाई बुराई का सारा मेल था
अपने आप को इसमें चढ़ा लिया
सुख और दुःख की जो चली रेल है
छटपटाते हुए जब हांफने लगा
गजबज कर मैं उसे ढूंढने लगा
पीछे छूटा मोड़ बहुत दूर था
महसूस होता है सब उसी छोर था
लगाई किसने वो स्नेह आवाज थी
भावक हो बहक गया मैं उस राह
ना जान सका मेरा भला बुरा
उस भ्रमक रहा पर बढ़ता रहा
कर्म होता है क्या मुझको नहीं पता
गिरते पड़ते उठते बस मै चलता चला
अभी बहुत दूर तक जाना मुझे
लाने बस चार आने मुझे
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी


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