आज कल
सुना है पर्बतों पर मेला लगा है आज कल
कोई अपना अकेला फिर रहा है वंहा अब भी आज कल
ना जमीन है ना आसमान है वंहा
मिल रहा है वो वंही आज कल
चलो चलें क्षितिज के उस पर कह रहा है
वो वंही से आज कल
सात रंगों ने अपनी छटा बिखराई हुई है वंही पर आज कल
झर झर झरते झरनों ने हरयाली फैलाई है वंही पर आज कल
बीते पलों को वो ढूंढ रहा है जो उस से छूट गया आज कल
उजड़े खंडहरों में ना जाने आज किसे वो ढूंढ रहा है आज कल
आया है बड़े दिनों बाद वो
लाया है बस दो दिन का अवकाश वो
बिछोह सदियों का इतने काम समय में कैसे करेगा पार वो
वो ही अब समझेगा वो ही अब समझायेगा
मन को पहले भी मनाया था अब भी उसको ही मनाएगा
शायद ग्रीष्म ऋतू आई है छाई है
इसलिए लगता हैं पहाड़ों ने ली फिर अंगड़ाई है
त्रस्त हुए ग्रीष्म से मुसफ़िरों ने
फिर अपने गाँव की और दौड़ लगाई है
आज कल
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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