गाथा तेरी अवर्णीय
पता नहीं है क्या सोच रहा
क्षण प्रति क्षण जो मुझ से बोल रहा
बैठ अकेला वो रो रहा
सुख नींद दूर कोई अकेला सो रहा
पराग ने अभी गहरी साँस भरी
वसुंधरा अभी भी हरी भरी
अपरिचित सृष्टि अल्कल्पनीय वो
विवेचना मेरी भी कह रही वो
नारी तेरी गाथा है अवर्णीय
काँटों से फूलों को क्यों तोड़ रहा
मुक्ति ‘कोई तो’ प्रतीक्षा करता
इस भाव संग सब वो छोड़ रहा
संध्या उड़ते धूल भरी सरिता बह
स्वयं ही दासता बंधन तेरा जोड़ रहा
किसी मोड़ मै भी मिलूंगी तुम से
क्षण प्रति क्षण जो मुझ से बोल रहा
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी


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