24दिसम्बर ,1981को रात के नौ बज चुके थे। मैं आफिस में अकेले ही अपनी मेज पर काम कर रहा था। बाहर क्या,कमरे के अंदर भी बहुत ठण्ड लग रही थी। घना कोहरा मेरे आफिस भवन के द्वितीय तल पर भी छा चुका था। मैंने कमरे की सारे बल्ब-ट्यूबलाइट चालू रखी थी। मेज के नीचे डबल रॅड का हीटर भी जला रखा था। नौकरी में आए मुझे अभी छह महीने ही हुए थे।उम्र भी बाईस वर्ष की थी । आफिस में आडिट टीम आ रखी थी। मुझे क्रय व स्टोर का काम सौंपा गया था। मेरे स्टोर क्रय संबधी खाते पूरे नहीं थे। कारण,अभी मुझे सरकारी काम काज इतना अनुभव भी नहीं था। छह महीने भी नहीं हुए थे नौकरी लगे कि मुझे स्टोर का चार्ज दे दिया गया था। मुझे सारे रिकार्ड व रजिस्टर पूरे कर दूसरे दिन आडिट को दिखाने थे। मेरे वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी घर जाते हुए मुझे यह आदेश दे गये थे। पूरा चार मंजिला भवन खाली था । बस मैं और नीचे मुख्य गेट पर चिंतामणी सुरक्षा गार्ड । मैं काम में इतना मग्न था कि मुझे पता ही नहीं चला कि रात के साढे़ नौ बज चुके थे। तब मोबाइल फोन तो क्या घर पर भी कालोनी में इक्का दुक्का काले रंग के बड़े लैण्डलाइन टेलिफोन होते थे।तो अपनर घर पर भी देर से आने की सूचना न दे सका।
मेरा आफिस इंद्रप्रस्थ एस्टेट इलाके में यमुना किनारे रिंग रोड पर था। तब वाहन भी व बस सेवा भी सीमित होते थे। सुनसान इलाका था। हाँ रिंग रोड पर थोड़ी -थोड़ी देर में ट्रक दोड़ने की आवाज जरुर सुनी जा सकती थी।
अचानक कोहरा कमरे में भी बहुत ज्यादा घिरने लगा था।गैलरी का खम्बा भी मुझे नज़र आना बंद हो गया था। बस कमरे,बरामदे में कोहरा ही कोहरा।
तभी मुझे चौथी मंजिल से किसी के सीढियाँ उतरने की कदमों जैसी आहट सुनाई दी-टक-ठक टक-ठक ऐसा लग रहा था कि कोई धीरे कदमों से अब तीसरी मंजील पर पंहुच चुका था।क्योंकि कदमों की आवाज में नीरंतर बढोतरी होती जा रही थी।
अब मुझे लगा कि वह उतरने वाला दूसरी मंजील की गैलरी में पहुंच चुका है जहाँ पर कमरा नम्बर 201 मैं बैठा था लेकिन घने कोहरे के कारण मुझे कोई नहीं दिख रहा था। मेरी कुर्सी -मेज अपने कमरे के प्रवेश द्वार के बिलकुल सामने थी तो वहाँ से गैलरी में प्रत्येक आने जाने वाला नजर आते थे। सीढि़यों के बगल में ही दाहिनी तरफ को पुरुष शौचालय था। मुझे एक हल्की सी परछाई नज़र आई जो शौचालय की तरफ मुड़ी। कर्र,कर्र,कर्र शौचालय का दरवाजा खुलने की आवाज के साथ ही धड़ाम से बंद हो गया। अब मुझे भी शौचालय जाने की आशंका होने लगी। मैने सोचा कोई चौथी मंजिल की लैब में इंजिनियर काम कर रहा होगा। मैं गाना गुनगुनाते हुए शौचालय में दरवाजा धकलेते हुए घुसा। दरवाजा फटाक से बंद हो गया। अंदर लाईट भी नहीं थी। हाँ बाहर दूसरी तरफ ग्राऊंड के पोल पर सुरक्षा के लिए लगी घूमने वाली सर्च लाईट बीच-बीच मे हल्का प्रकाश फैंक रही थी पर कोहरा इतना घना था कि वह भी बेअसर थी।
मै भी अंदाजे से अंदर पोट की तरफ चलते हुए बोला," कौन है बे, बता दियो कहीं मै पीछे से तूझे भी गीला न कर दूं"। पर कोई उत्तर नही मिला। खैर, जैसे ही मैंने अपना काम करना शुरु किया तो हल्की लाईट में देखा एक सफेद पौशाक में आठ-नौ फीट का आदमी भी पोट के आगे मेरे बगल में खड़ा है पर मुझे उसकी न तो शक्ल दिख रही थी न हाथ-पैर। हाँ तर-तर पानी सी गिरने की ध्वनि जरुर सुनाई दे रही थी "अबे,बोल क्यों नहीं रहा,तेरे पास भी आडिट का काम था क्या ?,जो मेरी तरह अब तक बैठा है इस ठण्ड में" मैं फिर बोला।
पर उसकी तरफ से कोई हरकत नहीं हो रही थी। वह बस बूत बनके बगल में खड़ा था।
अचानक मुझे गाँव का एक भूत का किस्सा ध्यान में आया। फिर क्या था ,मैं बगैर पेंट बंद किए ही अपने अंदाजे से दरवाजा खोल कर दौड़ा और चिल्लाने लगा ,"चिंतामणी, चिंतामणी" ,पर कोई आवाज न सुनाई दी । कब सीढ़ियों से नीचे भागने लगा, मालूम ही न चला। मेरी सांस जोर-जोर से चलने लगी।
मुख्य गेट पर पहुंचा तो वह भी बंद था। चिंतामणी ,चिंतामणी चिल्लाने पर भी चिंतामणी नज़र नही आ रहा था। चिंतामणी वह गार्ड था जो उस समय सुरक्षा ड्यूटी पर था।
गेट भी बाहर से बंद। मैने बहुत कोशिश की पर गेट खुला नहीं ।
किसी तरह गार्ड की कुर्सी दीवार से सटाकर बगल के आफिस कूद कर रिंग रोड से आई० टी०ओ ,विकास मीनार की तरफ दौड़ने लगा। मेरने पीछे मुड़ कर एक बार भी नहीं देखा। गाँव में जो सुन रखा था कि जब भी भूत मिले तो कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए । सड़क, सुनसान , कोहरे से ढकी थी। सामने ही ओवरकोट, टोपी' मफलर पहने एक छाया सी मुझे दिखी तो नजदीक से पता चला कि वो चिंतामणी ही था । दूर से वह भी मुझे भूत ही लग रहा था ।वो भी तब मुझे पता लगा जब वह जोर से बोला ," सहाब क्या हुआ? ऐसे डरे से क्यों भाग रहे हो।?" उसने मेरा कंधा पकड़ कर रोका" आपकी तो सांस भी फूल रही है"?
"अबे कहाँ मर गया था,इतनी देर से? वो भी मेन गेट पर ताला लगाकर। तुझे मालूम नहीं ,मै अकेला हूँ और मुझे घर भी जाना था।"
"अरे साब, मैं खाना खाने गया था आई०टी०ओ० चौराहे पर। यहाँ तो दूर -दूर तक कोई ढाबा नहीं है। फिर दस बजे के बाद वो भी बंद हो जाता है। मैं आपको बताने आया था पर आप काम में मस्त थे" चिंतामणी अपनी सफाई दे रहा था।
"अच्छा,कमरे में हीटर जल रहा है,आलमारी भी खुली ही है, सारी फाईल और रजिस्टर भी बाहर ही हैं।
हाँ , स्टोर की चाबी भी टेबल पर ही है उसे अपने पास ही रखना और कमरा तो तू बाहर से बंद करता ही है। सुबह मैं सबसे पहले आठ बजे आ जाऊंगा " मैं उसे हिदायत दे रहा था।
"सहाब, कुछ देखा क्या?आप इतने डरे हुए हैं" उसने पूछा," चलो ढाबे पर आपको चाय पिलाकर मैं आई०टी०ओ० से बस में बिठा दूंगा। 53 नम्बर की बस सीधे आपके सरोजिनी नगर हीजाती है।"
"क्यों पूछ रहा है"? मैने कहा।
" सहाब ,हमारा आफिस जहाँ बना है न कहते हैं वहाँ पहले कब्रिस्तान होता था ,ऐसा सुना है पुराने लोगों ने। यहाँ भूत घूमते है़ रात को। हाँ अगर आपके पास आग जल रही हो तो कोई नुकसान नहीं पहुंचाते। इसीलिए मैं जब भी राऊंड मारता हूँ तो बीडी जला के चलता हूँ। आप भी बच गये क्योंकि आपने हीटर जला रखा था । मैने कई बार देखी है आठ -नौ फीट की सफेद साया घूमते हुए । वो कब्रिस्तान का भूत है जो रोज ही हर मंजिल पर घूमता रहता है ।"
जैसे ही चिंतामणी ने यह कहा तो अब मैं और डर गया व ठण्ड से कांपने लगा।
"कल बताऊंगा, तू अब मुझे विकास मीनार के टैक्सी स्टैण्ड से टैक्सी पकवड़वा दे बस। किराया उसे मैं घर से दे दूंगा" तब तक हम टैक्सी स्टैण्ड पहुँच चुके थे।
किस्मत से एक सरदार जी की टैक्सी में बैठकर सरोजिनी नगर पहुँच गये।
देखा तो पिताजी पंखी ओढे सड़क पर टहलते हुए मेरा इंतजार कर रहे थे व परेशान थे। वो कई चक्कर तो बस स्टैण्ड के लगा चुके थे। सरकारी मकान की सीढ़ियों पर चढते हुए पिताजी मुझे डांटते जा रहे थे। क्योंकि मुझे पहली बार इतनी देर हुई थी। खैर आडिट के कारण देरी होना बताकर भविष्य में कभी देर न करने का वादा किया।
दूसरे दिन आफिस मे कई लोगों ने बोला ," सहाब आप बच गये। अगर आग यानी हीटर न जली होती तो आप तो गये थे काम से। सभी ने अपने- अपने आफिस में घटित भूत के अनुभव सुनाये। उसके बाद मैं उस आफिस में जब तक रहा कभी भी पांच बजे के बाद अकेले नहीं रुका। सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त होने से पूर्व मेरी अंतिम पोस्टिंग भी उसी विभाग में हुई । सेवा के अंतिम तीन वर्ष मैने उसी भवन में बिताये और जब भी मैं उस बाथरुम में घुसता तो मुझे वह घटना याद आ ही जाती। देर तक तो मैं अब भी नहीं रुका उस भवन में अकेले। पर "वो कौन था ? उस रोज।
अगर चिंतामणी की बात माने तो क्या वो कब्रिस्तान का भूत ही था ।


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