कुंठित मन
कुंठित मन बेकरार है
फुट जाने को
ना जाने किस और बह जाने को
कुंठित मन .......
विफलता से हताशा
पुष्प हो कांटें
पड़ने दो गालों पर चांटें
बस बदहवास
कुंठित मन .......
निराशा की आख़री धुरी
कितने जन्मों की वो दुरी
ज़िन्दगी फिर भी बेजारा है
कुंठित मन .......
अंधेरों से उभरी है
उजाले की वो परछाई है
बस छटपटाहट है
कुंठित मन .......बेकरार है
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी
1 टिप्पणियाँ
बेहद भावपूर्ण यथार्थवादी चिंतन
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