जिंदगी के मोड़ पर.....
जिंदगी के मोड़ पर .....
थक सा गया हूँ जवाबदारी का बोझ उठते उठते .....
राह पर नहीं देखना है अब पीछे मोड़ के .....
चल रहा हूँ एक राह पर एक एक कदम बढ़ाते .....
कभी सहम से कभी विश्वासघात की आशंका से घबरते .....
आज भी यादों का बस्ता है मेरे पीठ पर .....
फिर क्यों विशवास रखों इस दुनिया रीत पर .....
इस जिंदगी के रास्ते में प्रेम कभी मिला नहीं .....
कारण इस रस्ते का कभी अंत होगा नहीं .....
तभी भी मनुष्य की तरह रहने का प्रयत्न करते हैं हम .....
ऐसा करते समय कंही पर हम अपनी होशियारी रख देते हैं .....
अंत है कहीं पर भी किसी समय भी लकड़ी की चिता पर .....
और मेरे प्रियजनों का मस्तक है बस मेरे सीने पर .....
आँखों से बह के उनके मिटटी में घुल रहा हूँ मैं .....
आज भी उनके यादों में अकेले रो रहा हूँ मै .....
फिर भी हम घूम रहे हैं यंहा वंहा अपने जीवन के लिए सड़क पर ...
पीछे मोड़ के देखो एकबार जिंदगी के मोड़ पर
जिंदगी के मोड़ पर ......
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी
1 टिप्पणियाँ
बहुतेरे हो अपने, लेकिन कभी न कभी हर इंसान कहीं न कहीं अपने आप को अकेला पाता ही है
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति