बीते दिनों की याद में अक़्सर
बीते दिनों की याद में अक़्सर
दिल उसका रो पड़ता
पत्थर से प्रेम करता था कब वो
अब कंक्रीटों में दिल रहता है
अब भी अटका रहता है वो
जंगल के उन काँटों में
थकता नहीं था वो कभी देख चढ़न को
अब हांफ जाता है सीधे रास्तों में
अब इतिहास बन कर रह गया वो
पगडंडी और गलियारों में
घास फुस में आ जाती थी कभी गहरी
अब आती नहीं उसे मखमल के बिछोने में
अब भी फर्क नहीं कर पाता है वो
सूखे गीले उन दरख्तों में
अब तो लाजमी उसका धोखा खाना
जब आग लग गयी हो अपने से
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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बालकृष्ण डी ध्यानी
1 टिप्पणियाँ
मज़बूरी है परदेश में रहने की, कौन चाहता है कंक्रीट के जंगल में रहना ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर